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झारखंड


महुआ के 'फूलों की खुशबू' से गरीबों के जीवन में आ रही 'खुशहाली'

दिन भर मेहनत कर एक परिवार जंगलों से चुन पाता है 10 किलो महुआ, सूखने पर बिकते हैं 30 रुपए किलो
महुआ के 'फूलों की खुशबू' से गरीबों के जीवन में आ रही 'खुशहाली'
प्रशांत शर्मा/न्यूज11 भारत

हजारीबाग/डेस्कः हजारीबाग में मार्च महीने के अंतिम सप्ताह में जंगलों में महुआ के फूल गिरने लगते हैं. इन्हें इकट्ठा करने के लिए लोग मार्च से मई महीने में करीब 15 दिनों तक जंगल जाते हैं. इस दौरान महुआ के फूलों को चुनने के लिए पेड़ के नीचे की जमीन को साफ करने के लिए सूखे पत्तों में आग लगा दी जाती है. यही आग धीरे-धीरे पूरे जंगल में फैल जाती है. ग्रामीणों के लिए महुआ इकट्ठा करना बिना पूंजी लगाए आय का साधन है. लोगों को सिर्फ जंगल में जाकर महुआ चुनने और उसे सुखाने में मेहनत करनी पड़ती है. सूखा महुआ को व्यवसायी ग्रामीणों के घर में आकर खरीद लेते हैं. 

 

गौरतलब है कि महुआ का फूल माइनर फॉरेस्ट प्रोडक्ट है। इसे चुनने में पूरा परिवार रोज सुबह चार बजे से जुट जाता है. हर दिन सुबह से चार से पांच घंटे की मेहनत के बाद करीब 10 किलो महुआ फूल इकट्ठा कर लेता है. तीन से चार दिन धूप में सुखाने के बाद व्यवसायी 30 से 35 रुपए है प्रति किलो की दर से खरीद लेते हैं. इससे परिवार को महीने में करीब 10,500 रुपए की आमदनी हो जाती है.

 

साड़ी बिछाकर महुआ चुनने से नही लगानी पड़ेगी आग: पर्यावरणविद

जंगल को बचाने के लिए तीन दशक से मुहिम चलानेवाले पर्यावरणविद सुरेंद्र प्रसाद सिंह ने कहा कि एक परिवार कई पेड़ के नीचे महुआ चुनता है. महुआ इकट्ठा करने के पेड़ के नीचे पुरानी सिंथेटिक साड़ी या नेट बिछा देने से लोगों को पेड़ के नीचे से पत्ता साफ करने के लिए आग नहीं लगानी पड़ेगी. इससे जंगलों को जलने से बचाया जा सकता है. उन्होंने कहा कि पुरानी साड़ियों को जोड़कर पेड़ के नीचे. बिछा देने से महुआ चुनने की जरूरत भी नहीं पड़ेगी. सभी फूल एक बार इकट्ठे हो जाएंगे. ग्रामीण अपने बागान को जानवरों से बचाने के लिए सिंथेटिक साड़ी का इस्तेमाल भी करते हैं.

 


 

कुछ ग्रामीणों को दिया था नेट पूर्वी वन प्रमंडल हजारीबाग ने 

कुछ ग्रामीणों को प्रायोगिक तौर पर महुआ का पुल जाम करने के लिए पतला नेट दिया था. नेट को पेड़ के नीचे बिछा देना था, ताकि पत्तों को साफ करने के लिए आग लगाने की जरूरत ना पड़े. वन क्षेत्र पदाधिकारी अभय कुमार ने बताया की नेट देने का अपेक्षित परिणाम नहीं मिला. लोगों को यह पसंद नहीं आया. ग्रामीणों ने और नेट की मांग नहीं की.

 

जंगलों को फायर लाइन बनाने में ईमानदारी नहीं

मार्च महीने में हर साल जंगल में फायर लाइन बनाई जाती है. इसमें जंगल की जमीन पर गिरे फायर मेटेरियल के बीच एक से दो किलोमीटर पर पांच से आठ फीट चौड़ी फायर लाइन बनाई जाती है. फायर लाइन में सभी लड़कियों को हटा दिया जाता है. इससे आग फैल नहीं पाती है. सड़क के किनारे फायर लाइन बनाया जाता है लेकिन भीतरी जंगल और पहाड़ में फायर लाइन बनाने में कोताही बरती जाती है. 

 

दारू निवासी अक्षयबट प्रसाद बताते हैं कि वनकर्मी अपने अधिकारियों को दिखाने के लिए सड़क के किनारे फायर लाइन काटते हैं. गौरतलब है कि जंगल में आग लगाने के आरोपी के विरुद्ध भारतीय वन अधिनियम के तहत मुकदमा दर्ज करने का प्रावधान है.
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