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नहाय-खाय के साथ आज से शुरू लोक आस्था का महापर्व छठ, जानें पूजा के नियम और इसके पौराणिक कथा

नहाय-खाय के साथ आज से शुरू लोक आस्था का महापर्व छठ, जानें पूजा के नियम और इसके पौराणिक कथा
न्यूज11 भारत




रांचीः आज यानी 28 अकटूबर से चार दिनों तक चलने वाला महापर्व छठ शुरू हो रहा है. जिसका समापन 31 अक्टूबर को होगा. बता दें, लोक आस्था का यह पर्व कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि से शुरू हो जाती है. इस महापर्व में व्रती (महिला-पुरुष) 36 घंटे का निर्जला उपवास करते है और भगवान भाष्कर की पूजा-अर्चना करते है. छठ पूजा में व्रती अपने संतानों की सुख-समृधि और लंबी आयु की कामना भगवान भाष्कर से करते है. आइए जानते है चार दिनों के इस महापर्व में पूजा के क्या-क्या विधि है और चौथे दिन तक कैसे भगवान सूर्य की पूजा होती है...

 

छठ पूजा के दिन

 

28 अक्टूबर 2022 (शुक्रवार) पहला दिन- नहाय खाय 

29 अक्टूबर 2022 (शनिवार) दूसरा दिन- खरना

30 अक्टूबर 2022 (रविवार) तीसरा दिन- अस्तचलगामी सूर्य को अर्घ्य 

31 अक्टूबर 2022 (सोमवार) चौथे दिन यानी आखिरी दिन- उदीयमान सूर्य को अर्घ्य

 

जानें चार दिनों तक छठ पूजा के नियम 

 

नहाय-खाय के साथ छठ पर्व शुरू (पहला दिन)

 

28 अक्टूबर को नहाय-खाय के साथ लोक आस्ठा के महापर्व की शुरुआत हो जाएगी. ये चार दिनों का अनुष्ठान नहाय खाय के साथ शुरू होता है. पहले दिन व्रती नदी जलाशय में स्नान के बाद पूरी शुद्धता रखते हुए कद्दू भात का प्रसाद तैयार करते हैं. शुद्धता के लिए मिट्टी का चूल्हा और जलाव के तौर पर आम की लकड़ी उपयोग में लायी जाती है. और फिर आरवा चावल का भात, चने की दाल और कद्दू (लौकी) की सब्जी बनायी जाती है. स्नान के बाद व्रती यही भोजन ग्रहण करते हैं और इसे छठ पर्व का पहला प्रसाद भी कहा जाता है.

 


 

36 घंटे का निर्जला उपवास शुरू (दूसरा दिन)

 

29 अक्टूबर छठ का दूसरा दिन है. लोकआस्था के पर्व के दूसरे दिन को खरना कहते हैं. इस दिन व्रती दिनभर उपवास करते हैं और फिर देर शाम गुड़ और चावल की खीर बनायी जाती है. दिनभर के उपवास के बाद वर्ती खीर का प्रसाद ग्रहण करते हैं. जिसे हम खरना के नाम से जानते हैं. और खरना के बाद से ही शुरू होता है छठ व्रतियों का 36 घंटे का निर्जला उपवास. जो उदयीमान सूर्य को अर्घ्य देने के बाद ही संपन्न होता है.

 

सूर्य देव को पहला अर्घ्य (तीसरा दिन) 

 

30 अक्टूबर को छठ पूजा का तीसरा दिन है. महापर्व छठ के तीसरे दिन. भगवान भाष्कर को पहला अर्घ्य दिया जाता है. और ये एकमात्र ऐसी पूजा है जिसमें अस्ताचलगामी यानी डूबते सूर्य की पूजा की जाती है. दिनभर उपवास के बाद व्रती शाम में नदी, जलाशयों में खड़े होकर अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य देते हैं. छठ घाटों पर बांस का डाला और प्रसाद से सजे सूप बड़े ही मनमोहक नजर आते हैं. ये दृश्य बड़ा ही मनोरम लगता है. छठ के गीत और व्रतियों की आभा से पूरा वातावरण भक्तिमय हो जाता है.

 

सूर्य देव को दूसरा अर्घ्य (आखिरी दिन)

 

31 अक्टूबर को छठ पर्व का चौथा दिन. शाम को छठ घाट से लौटन के बाद व्रती सूर्योदय का इंतजार करते हैं. अगली सुबह उदयीमान सूर्य को अर्घ्य देने के बाद लोकआस्था के महापर्व का समापन होता है. भगवान भाष्कर, छठी मैया से मनोकामना पूरी करने की आस लिए श्रद्धालु ये व्रत करते हैं जिसमें 36 घंटे का निर्जला उपवास होता है. और ये छठ मां की ही महिमा है कि जो भी इस पर्व को पूरी श्रद्धा के साथ करते हैं उनकी सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं. ये पर्व ये भी संदेश देता है कि प्रकृति से ही जीवन संभव है.

 

महापर्व छठ की पौराणिक कथा

 

पौराणिक कथा के अनुसार, प्रियव्रत नाम के एक राजा हुआ करते थे. उनकी पत्नी मालिनी थी. दोनों की कोई संतान नहीं थी. इसे लेकर वे दोनों बहुत दुखी रहते थे. एक दिन उन्होंने संतान प्राप्ति की इच्छा जाहिर करते हुए महर्षि कश्यप से पुत्रेष्टि यज्ञ करवाया. इसके बाद उनकी पत्नी मालिनी गर्भवती हुई. नौ महीने बाद जब उन्हें संतान सुख प्राप्त करने का समय आया, उनकी पत्नी से मरा हुआ पुत्र का जन्म हुआ. मरे हुए पुत्र के जन्म से राजा को इतना दुख हुआ कि उसने आत्महत्या करने का अपना मन बना लिया. कथा के अनुसार, राजा ने जैसे ही आत्महत्या करने की कोशिश की उसी वक्त उनके सामने एक देवी प्रकट हुई. देवी ने राजा से कहा कि मैं षष्टी देवी हूं. मैं लोगों को पुत्र का सौभाग्य प्रदान करती हूं. इसके अलावा जो सच्चे भाव से मेरी पूजा करता है, मैं उसके सभी प्रकार के मनोरथ को पूरा कर देती हूं. यदि तुम मेरी पूजा करोगे तो मैं तुम्हें पुत्र रत्न प्रदान करूंगी. देवी की बातों से प्रभावित होकर राजा ने उनकी आज्ञा का पालन किया. राजा और उनकी पत्नी ने कार्तिक शुक्ल की षष्टी तिथि के दिन देवी षष्टी की पूरे विधि-विधान के साथ पूजा-अर्चना की. इस पूजा के फलस्वरूप उन्हें एक सुंदर पुत्र की प्राप्ति हुई. कहा जाता है तभी से छठ के इस पावन पर्व को मनाने की प्रथा है.

 

इसके अलावे एक और कथा है जिसमें कहा जाता है कि जब पांडव अपना सारा राजपाट जुए में हार गए, तब द्रौपदी ने छठ व्रत रखा. इस व्रत के प्रभाव से उसकी मनोकामनाएं पूरी हुईं. साथ ही पांडवों को राजपाट वापस मिला था.
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