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स्वास्थ्य


जहरीली हवा धीरे-धीरे छीन रही है हमारी सूंघने की शक्त‍ि, जानें क्या कहता है वैज्ञानिक शोध

जहरीली हवा धीरे-धीरे छीन रही है हमारी सूंघने की शक्त‍ि, जानें क्या कहता है वैज्ञानिक शोध
न्यूज11 भारत


रांचीः हवाओं में दिनों-दिन घुलता जहर हमारे स्वास्थ्य के लिए काफी नुकसानदायक साबित हो रहा है. ये जहर श्वास नली के माध्यम शरीर के भीतर जा रहे है इसमें से एक प्रमुख है पीएम 2.5 प्रदूषक (फाइन पार्टिकुलेट मैटर). क्या जानते है कि वायु में ऐसे कई प्रदूषण है जिसके संक्रमण से हमारे सूंघने की शक्ति धीरे-धीरे छीन सकता है. अगर नहीं जानते..तो आइए हम आपको बताते है कई इससे संबंधित कई महत्वपूर्ण बातें. 

 

सबसे पहले तो आप यह जान लें कि आखिर पीएम 2.5 प्रदूषक यानी फाइन पार्टिकुलेट मैटर क्या है. तो जानकारी के लिए आपको बता दें कि पीएम 2.5 एक वायु प्रदूषक है जो हवा में उच्च स्तर होने पर लोगों के स्वास्थ्य के लिए चिंता का विषय है. पीएम 2.5 हवाओं में छोटे-छोटे कण होते हैं जो दृश्यता को कम करते हैं साथ ही ऊंचा स्तर होने पर हवा को धुंधला दिखाई देने लगता हैं. 

 

एक खास सेंस है सूंघना  

हम सभी को प्रकृति ने पांच ज्ञानेंद्रियां जिसमें आंख, कान, नाक, त्वचा और जीभ है. इन सभी ज्ञानेंद्रियों से हमें कई एहसास होते है जिसे हम सेंस कहते है. स्वाद महसूस करना, सुनना-देखना, स्पर्श करना इसके अलावे सूंघना भी एक खास सेंस है मान लीजिए आप कहीं घूमने गए है और आपके सामने बहुत खूबसूरत दृश्य है जिसे आप देख रहे है या किसी से कुछ सुन रहे है ठीक वैसे ही रोल सूंघने का भी होता है. 

 


 


 

ना सूंघ पाना किसी बीमारी से कम नहीं 

जरा सोचकर देखिए..घर में कुछ अच्छा सा पकवान बन रहा हो और उसमें मशाले की महक आ रही है या फिर आप किसी बगीचे में हो जहां चारों तरफ सिर्फ फूल ही फूल लगे है लेकिन आस-पास की खुशबूओं को आप महसूस तक नहीं कर पा रहे हो तो जिंदगी में कितना सूनापन सा आ जाता है. हाल ही बात करें तो बीते दो सालों में कोविड-19 के लक्षण में स्वाद या गंध महसूस न कर पाना भी शामिल था. यानी ना सूंघ पाना किसी बीमारी से कम नहीं है. 




धीरे-धीरे कम होता जाती है सूंघने की क्षमता

किसी खुशबू या गंध का महसूस न कर पाना हमारे पूरे जीवन की गुणवत्ता पर भी प्रभाव डाल सकता है. लेकिन जब बात श्वसन संक्रमण की हो तो यह हमारे खास सेंस के लिए अस्थायी नुकसान का कारण बन सकता है, जिससे हमारे सूंघने की क्षमता धीरे धीरे कम होती जाती है. रिपोर्ट्स के मुताबिक, पीएम 2.5 प्रदूषक से लगातार बढ़ता हमारा एक्सपोजर हमें नुकसान के गड्ढे में धकेलने का काम कर रहा है. नया शोध इसे सही पैमाने पर बताता है, साथ ही इसके निष्कर्ष आज हम सबके लिए प्रासंग‍िक हैं. आधुनिक युग में पीएम 2.5 जैसे कई प्रदूषक बड़े पैमाने पर बिजली स्टेशनों, हमारे घरों में ईंधन के दहन और वाहनों से निकलने वाले धुएं से लगातार पर्यावरण में फैल रहे हैं. ऐसे में हमें अपने हेल्थ से संबंधित कुछ बड़े कदम उठाने और सजग होने की जरूरत है आप भी इस पर गौर करें. 

 


 

जानकारी के लिए आपको बता दें, हमारे मस्तिष्क के निचले हिस्से यानी नाक के छिद्रों के ठीक ऊपर घ्राण बल्ब होता है यह टिश्यू का संवेदनशील टुकड़ा है जो हमें सूंघने का संदेश हमारे दिमाग तक पहुंचाता है यानी हमें सूंघने में मदद करता है. रिपोर्टस के मुताबक, यह हमारे मस्तिष्क में जाने वाले प्रदूषकों और वायरस के खिलाफ हमारी रक्षा की पहली पंक्ति होती है. हालांकि, बार-बार जोखिम के चलते इसका बचाव पक्ष धीरे-धीरे कमजोर होने लगता है. 

 


 

ग्रामीण क्षेत्र में कम, शहरी क्षेत्र में ज्यादा समस्या 

लंबे समय से एनोस्मिया रोगियों पर काम कर रहे डॉ रामनाथन ने अपने इस रिसर्च में यह अध्ययन किया है कि एनोस्म‍िया से पीड़‍ित लोग क्या उच्च पीएम 2.5 प्रदूषण वाले क्षेत्रों में रह रहे थे? इस विषय पर कुछ समय पहले तक छोटे वैज्ञानिक शोध में 2006 में एक मैक्सिकन अध्ययन शामिल था, जिसमें मजबूत कॉफी और नारंगी गंध का इस्तेमाल किया गया था, सिर्फ यह दिखाने के लिए कि मेक्सिको सिटी के निवासी जो अक्सर वायु प्रदूषण से जूझते हैं. क्या उनकी तुलना में उनमें ग्रामीण इलाकों में रहने वालों की तुलना में गंध की क्षमता कम होती है. 




जानें क्या कहती है वैज्ञानिक रिसर्च 

रामनाथन ने चार साल की अवधि में पर्यावरणीय महामारी विज्ञानी झेन्यु झांग सहित सहयोगियों की मदद से जॉन्स हॉपकिन्स अस्पताल में भर्ती हुए 2,690 रोगियों के डेटा का एक केस-कंट्रोल अध्ययन स्थापित किया. इसमें पाया गया कि लगभग 20% को एनोस्मिया था और अधिकांश धूम्रपान नहीं करते थे. एक ऐसी आदत जो गंध की भावना को प्रभावित करने के लिए जानी जाती है. वैज्ञानिक रिपोर्ट्स के मुताबिक, पीएम 2.5 का स्तर उन इलाकों में "काफी अधिक" पाया गया जहां स्वस्थ नियंत्रण प्रतिभागियों की तुलना में एनोस्मिया के रोगी रहते थे. ऐसे में हमें अपने स्वस्थ्य को लेकर काफी सतर्क रहने की जरूरत है. कि वायु प्रदूषण की ये समस्या आख‍िर हमें कहां लेकर जा रही है. साथ ही अगर हम हमारे ज्ञानेंद्र‍ियों से मिलने वाले कई संकेतों को महसूस करने में नाकाम है तो इससे हमारा प्रकृति से जुड़ाव कम हो सकता है. 
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