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रांची/डेस्क:आदिवासी समुदाय की सबसे प्रमुख पर्व सरहुल आज पुरे झारखंड में धूमधाम से मनाया जा रहा है. सरहुल दो शब्द सर और हूल से मिलकर बना है. इसमें सर का मतलब सरई और सखुआ का फूल है तथा हूल का मतलब क्रांति है. मुंडारी और संथाली भाषा में सरहुल को बाहा पोरोब भी कहा जाता है. वही खोरठा और कुरमाली भाषा में इस त्योहार को सरहुल कहा जाता है. सरहुल पर्व पर आदिवासी साल वृक्ष की पूजा करते है. इस पर्व के साथ आदिवासी समुदाय नए साल की शुरुआत करते है. सरहुल पर्व चैत्र महीने के तीसरे दिन शुक्ल तृतीया तिथि को मनाई जाती है.
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सरहुल की पूजा आदिवासी समुदाय के धर्मगुरु यानि कि पाहन करवाते है. पाहन विधिपूर्वक आदिदेव सींग बोंगा की पूजा करते है. पूजा के दौरान सुख और समृधि के लिए रंगा हुआ मुर्गा की बलि भी दी जाती है. रंगा अथवा रंगवा मुर्गा ग्राम देवता को अर्पित किया जाता है. धर्मगुरु यानि पाहन गांव को बुरी आत्मा से दूर रखने के लिए इष्ट देवता से प्रार्थना करते है. पूजा के पहले दिन पाहन घड़े के पानी को देखकर वर्तमान वर्ष में कितनी बारिश होगी, इसकी भविष्यवाणी करते है.
सरहुल पर्व से ठीक एक दिन पहले सभी प्रक्रति पूजक उपवास रहकर केकड़ा और मछली पकड़ते है. घर के नए दामाद और बेटे परम्परा के नियमानुसार तालाब में केकड़ा और मछली पकड़ते है. तत्पश्चात घर के चूल्हें के सामने केकड़े को साल के पत्तों में लपेटकर लटका दिया जाता है. मान्यता के अनुसार आषाढ़ महीने में बीज बोने के समय केकड़े का चूर्ण बनाकर उसे भी खेत में बीज साथ-साथ बोया जाता है. माना जाता है कि इससे खेत की पैदावार में वृद्धि होती है.