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सिमडेगा/डेस्क:- केन्द्रीय सरना समिति सिमडेगा के बैनर तले सरना आदिवासी समाज गुरुवार को प्रकृति पर्व सरहुल बड़ें हर्षोल्लास के साथ मनाया.
सरहुल की पूजा सबसे पहले शहर के पानी टंकी के पास महादेव सरना स्थल के पास हुई. इसके बाद सलडेगा स्थित प्राचीन सरना स्थल पर पाहन बाबुलाल उरांव द्वारा पारंपरिक विधि विधान से सरना माता का पूजा किया गया. पाहन बाबुलाल और पुजार बिरसा मुंडा ने यहां सर्वप्रथम सरना माता का अराधना करते हुए सभी व्रतियों के साथ मांदर की थाप पर सरना झंडा लेकर सरना वृक्ष का परिक्रमा किए. इसके बाद विधि पूर्वक यहां सरना झंडा स्थापित किया गया. जिसके बाद पाहन ने सार्वजनिक पूजन कराया. प्रसाद ग्रहण करना के बाद महिलाएं पारंपरिक नृत्य की.सरना स्थल पर दो मटकों में पानी भरकर रखा गया था. इसी घड़े के पानी को देखकर पाहन इस साल होने वाली बारिश की भविष्यवाणी करते हैं. पारंपरिक विधि-विधान से सरना स्थल की पूजा के बाद सीमित संख्या में लोग शोभायात्रा निकाले जो पानी टंकी के पास सरना स्थल तक पंहुची. जहां पूजन के बाद सांस्कृतिक कार्यक्रम हुए. जिसमें विभिन्न जगहों से आई दल ने कार्यक्रम पेश किया.
सरहुल का शाब्दिक अर्थ है साल वृक्ष की पूजा. सरहुल का त्योहार धरती माता को समर्पित है. आदिवासियों का मानना है कि वे इस त्योहार को मनाए जाने के बाद ही नई फसल का उपयोग मुख्य रूप से धान, पेड़ों के पत्ते, फूलों और फलों के फल का उपयोग कर सकते हैं. सरहुल महोत्सव कई किंवदंतियों के अनुसार महाभारत से जुडा हुआ है. जब महाभारत युद्ध चल रहा था तो मुंडा जनजातीय लोगों ने कौरव सेना की मदद की और उन्होंने इसके लिए भी अपना जीवन बलिदान किया. लड़ाई में कई मुंडा सेनानियों पांडवों से लड़ते हुए मर गए थे इसलिए उनकी शवों को पहचानने के लिए उनके शरीर को साल वृक्षों के पत्तों और शाखाओं से ढका गया था. इनकी काया जो पत्तियों और शाखाओं के पेड़ों से ढंके हुए थे. सुरक्षित थे, जबकि अन्य शव, जो कि साल के पत्ते से नहीं ढंके थे विकृत हो गए थे और कम समय के भीतर सड़ गया थे. इससे साल के पेड़ पर उनका विश्वास दर्शाया गया है जो सरहुल त्योहार से काफी मजबूत है