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सिमडेगा/डेस्क:-नहाय खाय के साथ सिमडेगा में आस्था और पवित्रता का महापर्व छठ की शुरूआत हुई. व्रतियों ने शुक्रवार को सुविधानुसार नदी तालाब या घर पर नहा कर अरवा चावल की भात और कद्दू की सब्जी बना कर सेवन किया. वर्ती शनिवार को खीर प्रसाद से खरना करेंगी. महाषष्ठी को वर्ती शाम अर्घदान करेंगी और महासप्तमी के दिन प्रातःकालीन अर्घदान देकर व्रत का पारण करेंगी. सिमडेगा में अर्घदान केलाघाघ और छठ तालाब में दी जाएगी. इसके लिया घाटों की सफाई शुरू कर दी गई है.
हिन्दू पंचांग के अनुसार साल में दो बार छठ महापर्व मनाया जाता है. एक कार्तिक मास में पड़ने वाली और दूसरी चैत्र मास में पड़ने वाली. हालांकि कार्तिक मास में पड़ने वाली छठ पूजा का ज्यादा महत्व है. इस पर्व में भी सूर्य की उपासना करना शुभ माना जाता है. मान्यता है कि चैती छठ रखने से सूर्य देव की बहन छठी मइय्या प्रसन्न होती है जिससे परिवार में सुख-शांति और धन-धान्य बढ़ता है. कार्तिक मास की छठ के आधार में चैती छठ को काफी कम लोग जानते हैं. चैती छठ पूजा के नियम-कानून व पूजा विधी भी कार्तिक मास में पड़ने वाली छठ के जैसी ही होती है. आस्था और पवित्रता का महापर्व छठ पूजा मुख्यत पूर्वी भारत में मनाया जाने वाला प्रसिद्ध पर्व है. बिहार में प्रचलित यह व्रत अब पूरे भारत सहित नेपाल में भी मनाया जाने लगा है. इस पर्व को स्त्री व पुरुष समान रूप से मनाते हैं और छठ मैया से पारिवारिक सुख-समृद्धी तथा मनोवांछित फल प्राप्ति के लिए प्रार्थना करते हैं. कई लोग अपनी मन्नत पूरी होने पर भी यह व्रत उठाते हैं और आजीवन या जब तक संभव हो सके यह व्रत करते हैं. छठ पूजा में निर्जला व्रत रहकर उगते और डूबते सूर्य की उपासना की जाती है. यह पर्व चार दिवस का होता है और इस दौरान साफ़-सफाई को विशेष महत्त्व दिया जाता है.
चतुर्थी– नहाय खाय: इस दिवस पर पूरे घर की सफाई कर के उसे पवित्र बनाया जाता है. उसके बाद छठ व्रत स्नान करना होता है. फिर स्वच्छ वस्त्र धारण कर के शुद्ध शाकाहारी भोजन ग्रहण कर व्रत का शुभआरंभ करना होता है.
पंचमी– लोखंडा और खरना: इस दिवस पर पूरा दिन निर्जल उपवास करना होता है. और शाम को पूजा के बाद भोजन ग्रहण करना होता है. इस अनुष्ठान को खरना भी कहा जाता है. खरना का प्रसाद लेने के लिए आस-पड़ोस के लोगों को भी बुलाया जाता है. प्रसाद में घी चुपड़ी रोटी, चावल की खीर बना सकते हैं.
षष्ठी – संध्या अर्ध्य: इस दिवस पर छठ का प्रसाद बनाया जाता है. प्रसाद में चावल के लड्डू, फल, और चावल रूपी साँचा प्रसाद में शामिल होता है. शाम के समय एक बाँस की टोकरी या सूप में अर्ध्य सामग्री सजा कर व्रती, सपरिवार अस्ताचलगामी सूर्य को अर्ध्य अर्पण करने घाट की और प्रयाण करता है, किसी तालाब या नदी किनारे व्रती अर्ध्य दान विधि सम्पन्न करता है. इस दिवस पर रात्रि में नदी किनारे मेले जैसा मनोरम दृश्य सर्जित होता है.
सप्तमी – परना दिन, उषा अर्ध्य: व्रत के अंतिम दिवस पर उदयमान सूर्य को अर्ध्य दिया जाता है. जिस जगह पर पूर्व रात्री पर अस्ताचलगामी सूर्य को अर्ध्य दिया था, उसी जगह पर व्रती इकट्ठा होते हैं. वहीं प्रसाद वितरण किया जाता है. और सम्पूर्ण विधि स्वच्छता के साथ पूर्ण की जाती है.
छठ पूजा व्रत के महत्वपूर्ण नियम : छठ पूजा से सम्बंधित कई नियम व मान्यताएं हैं. छठ पूजा के चार दिन घर पर मांस आहार, और लहसुन प्याज नहीं खाये जाते हैं. इस व्रत के दौरान व्रतधारी व्यक्ति ज़मीन पर सोते हैं. और बिछौने में चटाई और ओढ़ने में कंबल प्रयोग करते हैं. छठ पूजा में महिलाएं साड़ी और पुरुष धोती पहनते हैं. छठ व्रत स्त्री और पुरुष दोनों कर सकते हैं. व्रतधारी को इन चार दिनों में शारीरिक स्वच्छता का विशेष ध्यान रखना चाहिए. छठ पूजा के दौरान अथवा यह पर्व आने वाला हों तब किसी करीबी सगे संबंधी का अवसान हो जाये तब उस वर्ष यह व्रत नहीं करना चाहिए. छठ पूजा के पवित्र पर्व पर काम, क्रोध, मोह, और लोभ का त्याग कर के सुगम सात्विक आचरण करना चाहिए. छठ व्रती बिना सिलाई वाले कपड़े पहनते हैं. जब की त्यौहार में शामिल व्यक्ति नए-नए वस्त्र धारण कर सकते हैं. एक बार छठ पूजा व्रत का आरंभ करने के बाद उसे प्रति वर्ष निरंतर करना चाहिए, जब तक की आगे की पीढ़ी की विवाहित महिला व्रत करना आरंभ न कर दे.
छठ पूजा से जुड़े रोचक तथ्य
रामायण काल में श्रीराम जब देवी सीता का स्वयंवर जीत कर अयौध्य लौटे थे तब उनका राज्यअभिषेक हुआ था. इस दिव्यप्रसंग के बाद श्री राम नें सीता सहित विधिवत कार्तिक शुक्ल पक्ष की षष्ठी पर पूजा की थी. उस समय से इस पूजा का बड़ा महत्व है.
महाभारत काल में जब द्यूतक्रीडा में पांडव अपना सर्वस्व हार चुके थे, तब द्रौपदी (पांचाली) नें इस पवित्र व्रत का अनुष्ठान किया था. अंगराज कर्ण सूर्य देव के परम भक्त थे. वह सूर्यदेव के औजस पुत्र भी थे.कर्ण प्रति दिन प्रातः काल घंटों तक पानी में कमर तक खड़े रह कर उनकी पूजा करते थे. इसी कारण सूर्य देव की उन पर विशेष कृपा भी रही थी. इस प्रसंग के बाद छठ पूजा में सूर्य देव को अर्घ्यदान देने की परंपरा शुरू हुई थी.